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Saturday 12 January 2013

तरुण संन्यासी के पाँव पर मत्था टेका

तरुण संन्यासी के पाँव पर मत्था टेका

वचनेश त्रिपाठी

"देवी! इस नगरी में मण्डन मिश्र कहाँ रहते हैं?"
मार्ग में जा रही कुछ स्त्रियों को देखकर एक पथिक ने प्रश्न किया। पथिक युवा है, काषायवेषधारी संन्यासी। ब्रह्मचर्य का तेज उसके भव्य मुखमंडल पर दीप्त हो रहा है। ऑंखों में आत्मतेज का प्रकाश। उस स्वस्थ, सुशील, सुदर्शन युवक की वाणी मे जैसे चमत्कार मुखर था। मार्ग चल रहीं वे स्त्रियाँ विरम गयीं। वे मण्डन मिश्र के घर की ही सेविकाएं थीं। एक ने प्रसन्न हो राही के प्रश्न का उत्तर दिया-

''स्वत:प्रमाणं परत:प्रमाणं
कीरांगना यत्र गिरागिरन्ति।
द्वारस्थ नीडान्तर-सन्निरुद्धा
जानीहि तन्मंडन पण्डितौक:॥''
(वेद अपने आप में स्वयंप्रमाण हैं या उन्हें अन्य प्रमाण अपेक्षित हैं- यह तर्क जहाँ पिंजरस्थ मैनाएं करती हों, आप समझ जाइएगा, वही पं. मण्डन मिश्र का आवास है।)

संन्यासी को हर्षमिश्रित आश्चर्य हुआ। अच्छा, तो इस मनीषी के द्वार पर टँगी मैनाएं भी शास्त्रार्थ करती हैं! और ये महिलाएं यद्यपि देखने में सेविकाएं जैसी प्रतीत होती हैं, ऐसी सुन्दर छन्दोबद्ध संस्कृत बोल सकती हैं! पूछा- 'भद्रे! आप का परिचय?'

'हम उन्हीं पंडितप्रवर की परिचारिकाएं हैं।'

और वह पथिक पंडितजी के मकान की खोज में चल पड़ा। क्यों कर रहा है वह उन कर्मकाण्डी पंडितजी की तलाश?
कुमारिल भट्ट ने प्रयाग में तुषाग्रि में जीवित जलने की तैयारी करते हुए उसे इन पंडितजी का पता-ठिकाना बताया था, बड़ी प्रशंसा की थी और कहा था, 'वैदिक धर्म-तत्पर, सुकर्म-निरत, प्रवृत्ति शास्त्र के समर्थक वे मण्डन मिश्र लोगों में 'विश्वरूप' नाम से विख्यात हैं।''

''सदावदन योगभंद च साम्प्रतं
स विश्वरूप: प्रथितो महीतले।
महागृही वैदिक धर्म-तत्पर:
प्रवृत्तिशास्त्रे निरत: सुकर्मत:॥''

वे महान गृहस्थ निवृत्तिमार्ग के घोर विरोधी हैं, इसीलिए वह संन्यासी उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हें अपने पथ का पथिक बनाना चाहता है। कारण, संपूर्ण भारत में वैचारिक-सांस्कृतिक एकता स्थापित करने का महाव्रत उसने इतनी अल्पायु में ही लिया है।

इसी उद्देश्य से महान मीमांसक कुमारिल भट्ट से भी भेंट करने गया था प्रयाग, परन्तु वे स्वेच्छया देह-त्याग के लिए भूसी की आग की चिता सजा कर बैठे मिले।

कहा, 'हम तो जा रहे हैं, आप यदि इस अद्वैत का प्रसार दिग्दिगन्त में करने के आग्रही हैं तो सुधीश्वर मण्डन मिश्र को अवश्य जीतिए क्योंकि उन्हें जीत लेने पर सभी को आप ने जीत लिया है, यह माना जायेगा।
''अयं च पन्था यदि ते प्रकाश्य:
सुधीश्वरो मण्डन मिश्र नामा।
दिगन्तविश्रान्त यशो विजेयो
यस्मिन् जिते सर्वमिदं जितं स्यात्।।"

किन्तु वे पंडितजी महाराज निवृत्तिमार्ग (संन्यास) को तनिक भी सम्मान या समर्थन नहीं देते; इसीलिए आप पहले उन्हें अपना अनुवर्ती-वशवर्ती बनाइए, तभी आप सफल-मनोरथ हो सकेंगे अन्यथा वह आप के विरोध में लगा रहेगा और अद्वैत मत के प्रसार में बाधा आयेगी। आज शीघ्र ही उन से जाकर मिलिए।
"निवृत्तिशास्त्रे न कृतादर: स्वयं
केनाप्युपायेन वशं स नीयताम्।
वशं गते तत्र भवेन्मनोरथ-
स्तदन्तिकं गच्छतु मा चिरं भवान्।"

और फिर उन पंडितजी को घेरने की एक युक्ति भी संकेत में उन्हें बता दी। कहा, जब मंडन मिश्र से आपका शास्त्रार्थ हो तो उसका निर्णायक बनाइए उनकी विदुषी भार्या भारती को। पंडितजी की उसी प्रियतमा, प्रेयसी को आप साक्षी बनायें, मध्यस्थ।
''सर्वासु शास्त्रसरणीषु स विश्वरूपो,
मत्तोऽधिक: प्रियतमश्च मदाश्रयेषु।
तत्प्रेयर्सी रामधनेन्द विधाय साक्ष्ये,
वादे विजित्य तमिमं कुसुमं विदेहि।''

तभी उस संन्यासी ने कुमारिल भट्ट को तारक मंत्र का उपदेश दिया और वह मीमांसक तुषाग्नि की चिता में देह-त्याग करने के लिए जा बैठा। संन्यासी ने मण्डन मिश्र की खोज में माहिष्मती नगरी का पथ पकड़ा। ये मण्डन मिश्र कुमारिल भट्ट के शिष्य थे।
माहिष्मती पहुँचकर वह तरुण माहिष्मती नगर के बहिरंग में अवस्थित एक अमराई में टिक गया। अपराह्न में वह पंडित के घर की तलाश में चला और फिर राह चलती दासियों से उस घर का पता पाकर वह एक ऐसे ही मकान के आगे ठहर कर क्या सुनता है कि पिंजड़ों में छ: मैनाएं परस्पर शास्त्रार्थ कर रही हैं कि 'वेद स्वत: प्रमाण हैं या परत:प्रमाण्य?'

परंतु फिर देखा, पंडितजी के घर श्राद्धकर्म संपन्न हो रहा है। ऐसे में संन्यासी का घर में प्रवेश वे वर्जित मानते होंगे, अत: पिछवाड़े से वह मकान में प्रविष्ट हुआ और आंगन में जहाँ पंडित मण्डन मिश्र खड़े थे, जा पहुँचा। पंडितजी कुपित। उसकी प्रत्यक्ष अवमानना करते पूछा-''कुत्तो मुण्डी? (अरे ओ मुण्डित मस्तक!) यहाँ कैसे घुस आये? देखते नहीं, श्राद्ध हो रहा है?''

और बस, वहीं दोनों में तर्क-वितर्क (शास्त्रार्थ) प्रारंभ हो गया। शर्त रखी गयी कि कौन जीता और कौन हारा। पंडितजी को उस में क्या आपत्ति हो सकती थी! भारती आखिर उनकी प्राणोपम प्रेयसी थी, प्रणयिनी। उन दोनों में पूर्व-प्रणयभाव प्रतिष्ठित रहने से ही विवाह-बंधन में बँधे थे और सद्गृहस्थ के रूप में प्रख्यात थे।

प्रणय भी इसलिए हो सका उनमें कि पं. विष्णुमित्र की बेटी भारती सर्वशास्त्र-निष्णाता परम विदुषी के नाते चतुर्दिक प्रशंसित थी और मंडन मिश्र भी अच्छे शास्त्रज्ञ तथा तर्कशास्त्री थे। दोनों बिहार में जन्मे। मण्डन मिश्र के पिता हिम मिश्र राजगृह में रहते थे, भारती का राजगृह के समीप सोन नदी-तटवर्ती एक ग्राम में वास था। दोनों परस्पर प्रणयपाश में आबद्ध हुए तो घर वालों ने भी खुशी-खुशी उनका विवाह संपन्न करा दिया। भारती जैसे सरस्वती का प्रतिरूप हो, वह मंडन मिश्र की प्रेरणा, पथ का स्फुरण बनी रही। दोनों एक ही पथ के पथिक, एक ही कर्म-विचार में निष्ठावान। न कभी कलह, न क्लेश। एकरस सुखी जीवन बीत रहा था। ऐसे में वह संन्यासी बीच में आ गया है। भारती सोच रही है: प्रभु की इच्छा से शायद कुछ अघटित घटने वाला है, तभी तो यत ने मुझे ही निर्णायिका बना दिया। यह कठिन कर्तव्य मैं पूरी सच्चाई से निभा सकूँ, हे भगवान्! वह शक्ति मुझे प्रदान करना।

मण्डन मिश्र प्रौढ़वयी हैं, संन्यासी अभी उनके सामने बालकतुल्य, फिर भी शास्त्रार्थ जब पूर्ण हो गया तो भारती ने निर्णय उस संन्यासी के पक्ष में दिया- पति को पराजित घोषित करने में उसने किंचित् भी हिचक नहीं अनुभव की। श्रोतागण चकित-स्तंभित कि भारती ने पति का तनिक भी पक्ष नहीं लिया। पूर्ण निष्पक्षता आचरित की उसने। वह जानती थी, शास्त्रार्थ की निर्धारित शर्त के अनुसार पति को हार जाने पर संन्यासी जीवन ही जीना-बिताना होगा, घर-गृहस्थी त्याग देनी होगी। तभी भारती ने टोका,

'यतिवर! आपने पति को तो जीत लिया परंतु वह विजय अपूर्ण है अभी, क्योंकि मैं उनकी अर्धांगिनी अभी अपराजिता ही हूँ। मुझे भी जीत सको तो यह विजय पूर्णता प्राप्त कर सकेगी।'

संन्यासी संकट में पड़ गया। संन्यास व्रत लेकर स्त्री से कैसे उलझे? परंतु भारती मानी नहीं। भारती ने गृहस्थ जीवन के कुछ ऐसे रहस्यात्मक निगूढ़ प्रश्न किये थे जिनसे वह बाल-ब्रह्मचारी नितान्त अनभिज्ञ था। अत: उसने भारती से मोहलत ली और अमरुक नाम के एक मृत नरेश की देह में प्रवेश कर राजमहलों के गृहस्थाश्रम के अनुभव प्राप्त किये। तब तक अपनी देह एक नीरव गुहा में डाल रखी। जानकारी लेकर राजा अमरुक के शरीर से उस संन्यासी का जीवात्मा पुन: अपनी देह में स्थित हुआ और माहिष्मती आकर भारती के प्रश्नो के उत्तर देकर उसे भी पराजित किया। भारती ने हार मान ली।

मण्डल मिश्र ने संन्यासी के पाँवों पर माथा टेक कर कहा, ''गुरुदेव! आपके करुणा-कटाक्ष से मैं धन्य हुआ।''

साथ ही उन्होंने गृहस्थी त्याग दी, संन्यासी के अनुगामी होकर अद्वैत के प्रचार-प्रसार में शेष जीवन खपाया। वे विजेता संन्यासी थे आद्य शंकराचार्य।

विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) कृत 'शंकर दिग्विजय' के अनुसार संन्यासी जीवन में मण्डन मिश्र का नाम 'सुरेश्वराचार्य' प्रसिद्ध हुआ-इन्होंने एक 'वार्तिक' लिखा, जिसमें 12 सहस्र श्लोक हैं। यह वार्तिक शंकराचार्य के 'बृहदारण्यक भाष्य' पर है। अन्य ग्रंथ का नाम है 'नैष्कर्म्य सिद्धि', जो गृहस्थ जीवन में प्रवृति मार्ग के समर्थन में लिखे गये इनके अपने पूर्व-ग्रंथ 'ब्रह्मसिद्धि' के नितान्त विपरीत मत का है और जो सिद्ध करता है कि संन्यासी होकर इन्होंने अपने सभी पूर्वाग्रह तथा मतवाद तिनके की भाँति त्याग दिये।
(सन्दर्भ- ‘यह पुण्य-प्रवाह हमारा’, लेखक- वचनेश त्रिपाठी, सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली)

पंडित वचनेश त्रिपाठीः परिचय

स्व. पंडित वचनेश त्रिपाठी की क्रांतिधर्मा लेखनी से प्रभूत मात्रा में क्रांतिकारी एवं प्रेरक साहित्य निर्मित हुआ। मूलतः उत्तर प्रदेश के सण्डीला ( हरदोई जनपद) कस्बे के रहने वाले पंडितजी का जन्म 24 जनवरी, 1914 को हुआ था। 16 वर्ष की उम्र में उनका संपर्क भारतीय स्वातंत्र्य समर के क्रांतिकारी पक्ष से हो गया। कई बार उन्होंने जेल की सजा काटी। कालांतर में उनका संपर्क पंडित दीनदयाल उपाध्याय एवं श्री अटल बिहारी वाजपेयी से हुआ। सन् 1948 में उन्होंने विधिवत् पत्रकारिता के श्रेत्र में प्रवेश किया। लखनऊ से प्रकाशित पांचजन्य साप्ताहिक. दैनिक तरूण भारत एवं मासिक पत्र राष्ट्रधर्म के वे संपादक रहे। उन्होंने 50 से अधिक पुस्तकों का लेखन एवं संपादन किया। सन् 2001 में उन्हें देश के लब्धप्रतिष्ठ सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 30 नवंबर, 2006 को उनका लखनऊ में निधन हो गया।

वीएचवी वेब पोर्टल पर पंडितजी के साहित्य-संच से कुछ चुने हुए आलेख सुधी पाठकों के लिए नियमित ऱूप से प्रस्तुत किए जाएंगे- संपादक

प्रस्तुति- वीएचवी ब्यूरो/2 जनवरी 2010.

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